Skip to main content

Posts

Showing posts from August, 2025

Featured Post

भगवान बुद्ध और उनका धम्म आत्मशुद्धि से सामाजिक जागरूकता तक

  भगवान बुद्ध और उनका धम्म आत्मशुद्धि से सामाजिक जागरूकता तक भूमिका भगवान बुद्ध की शिक्षाएँ केवल आत्मज्ञान या ध्यान-साधना तक सीमित नहीं थीं। उनका धम्म (धर्म) एक ऐसी जीवन पद्धति है जो व्यक्ति को आत्मिक शुद्धि के साथ-साथ सामाजिक जिम्मेदारी की ओर भी प्रेरित करता है। बुद्ध ने कभी अंधविश्वास, रहस्यवाद या परंपरा के आधार पर सत्य को स्वीकारने की बात नहीं कही। उनका आग्रह था कि हर बात को अनुभव, परीक्षण और तर्क की कसौटी पर कसा जाए। धम्म का सही अर्थ धम्म कोई रहस्य या केवल गूढ़ साधना नहीं है, बल्कि एक व्यावहारिक और सार्वभौमिक जीवन पद्धति है। कुछ लोग बुद्ध के धम्म को केवल समाधि और ध्यान से जोड़ते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि धम्म को कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में अनुभव कर सकता है। बुद्ध ने धम्म को तीन स्तरों में समझाया: अधम्म (Not-Dhamma) – हिंसा, झूठ, वासना, द्वेष जैसे नकारात्मक कर्म। धम्म (Shuddh Dhamma) – नैतिक आचरण और शुद्ध जीवन। सद्धम्म (Saddhamma) – परिपक्व, जागरूक और निर्मल जीवन शैली। तीन प्रकार की पवित्रताएँ जीवन को पवित्र और निर्मल बनाने के लिए बुद्ध ने तीन प्रमु...

भारत का धार्मिक इतिहास: वैदिक साधना से बुद्ध और नवयान तक

 भारत का धार्मिक इतिहास: वैदिक साधना से ब्राह्मणवाद तक, फिर बुद्ध और नवयान की क्रांति जब वैदिक धर्म सत्ता और कर्मकांडों का गुलाम बन गया प्रारंभिक वैदिक काल (1500 ईसा पूर्व – 1000 ईसा पूर्व) में धर्म एक उदार, लचीला और ज्ञान-प्रधान मार्ग था। उस समय प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती थी। मूर्तिपूजा या जटिल कर्मकांड प्रचलित नहीं थे। जातियाँ जन्म आधारित नहीं थीं। स्त्रियाँ और शूद्र वेद पढ़ सकते थे और विदुषियों को समाज में सम्मान प्राप्त था। धर्म भय पर आधारित नहीं था, बल्कि आत्मज्ञान का साधन माना जाता था। उत्तरवैदिक काल (1000 ईसा पूर्व – 600 ईसा पूर्व) में स्थिति बदलने लगी। ब्राह्मणों ने वेदों की व्याख्या पर अपना एकाधिकार जमा लिया। कर्मकांड और यज्ञ इतने जटिल और महंगे हो गए कि आम जनता के लिए धर्म का पालन असंभव हो गया। जातियाँ जन्म आधारित कर दी गईं और स्त्रियों व शूद्रों को वेद अध्ययन से वंचित कर दिया गया। धर्म अब ज्ञान की खोज से हटकर दंड और भय से नियंत्रित होने लगा। राजा भी धीरे-धीरे ब्राह्मणों के अधीन हो गए। जब ब्राह्मणों ने विशेष धार्मिक कानून बनाए ऋग्वेद के पुरुष सूक्त (10....

आत्मा और परमात्मा का एकत्व: अद्वैत वेदांत बनाम गौतम बुद्ध का दृष्टिकोण

परिचय भारतीय दर्शन में सबसे बड़े सवालों में से एक यह रहा है कि क्या आत्मा (Atman) और परमात्मा (Brahman) वास्तव में एक ही हैं, या फिर आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है। कुछ परंपराएँ मानती हैं कि जीवन का अंतिम उद्देश्य परमात्मा में विलीन होना है, जबकि अन्य यह मानती हैं कि मोक्ष का अर्थ केवल दुखों से मुक्त होकर शांति पाना है। इन सवालों के दो प्रमुख उत्तर हमें दो महान परंपराओं से मिलते हैं—आदि शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत और गौतम बुद्ध का अनात्मवाद। दोनों ही मुक्ति की ओर ले जाने वाले मार्ग हैं, लेकिन उनके दृष्टिकोण और साधना की पद्धति बिल्कुल अलग है। अद्वैत वेदांत: आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं आदि शंकराचार्य ने अपने अद्वैत वेदांत दर्शन में यह घोषित किया कि आत्मा और परमात्मा अलग नहीं हैं। यह विभाजन केवल माया का खेल है। जब व्यक्ति अपने सच्चे स्वरूप को पहचानता है, तब उसे अनुभव होता है कि वही ब्रह्म है। आत्मा और परमात्मा का संबंध शंकराचार्य के अनुसार आत्मा और ब्रह्म को अलग-अलग मानना अज्ञान है। अज्ञान के कारण ही मनुष्य यह सोचता है कि वह ईश्वर से अलग है। ज्ञान की अवस्था में पहुंचकर उसे प...

सर्वचेतनावाद क्या है? – परिभाषा और मुख्य विचार

 सर्वचेतनावाद क्या है? – परिभाषा और मुख्य विचार सर्वचेतनावाद (Panpsychism) दर्शन का वह दृष्टिकोण है जिसमें माना जाता है कि मन या चेतना वास्तविकता का एक मौलिक और सर्वव्याप्त तत्त्व है। सरल शब्दों में, इस सिद्धांत के अनुसार ब्रह्मांड की हर वस्तु में किसी न किसी रूप में चेतन अथवा मानसिक गुण मौजूद हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हर चीज़ सोच-विचार करने वाली "मनुष्य जैसी" चेतना रखती है, बल्कि यह कि परमाणुओं या कणों जैसे सबसे बुनियादी अवयवों में भी एक सूक्ष्म अनुभव या अनुभूति का पहलू होता है। वर्तमान दर्शनशास्त्र की भाषा में, सर्वचेतनावाद कहता है कि चेतना उतनी ही मूलभूत है जितना द्रव्य या ऊर्जा। इस दृष्टिकोण का एक लंबा इतिहास रहा है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक थेलीस से लेकर प्लेटो, स्पिनोज़ा, लाइबनिट्स, शोपनहावर और विलियम जेम्स जैसे पश्चिमी विचारकों ने कभी न कभी यह धारणा अपनाई या उस पर चर्चा की, 19वीं सदी में तो पश्चिमी दर्शन में मन और चेतना को समझने के लिए सर्वचेतनावादी सोच काफ़ी प्रचलित थी, परंतु 20वीं सदी के मध्य में तार्किक प्रत्यक्षवाद (Logical Positivism) के उदय के साथ इस विचार...

महाभारत से सीखें: 5 सबक जो आपकी निजी, पेशेवर और सामाजिक जीवन में उपयोगी हैं

महाभारत से सीखें: 5 सबक जो आपकी निजी, पेशेवर और सामाजिक जीवन में उपयोगी हैं महाभारत सिर्फ एक महाकाव्य नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है। यह हमें सिखाता है कि किसका साथ देना चाहिए, कब देना चाहिए और कितना देना चाहिए। जब दुनिया दो हिस्सों में बंटी हो — एक ओर अधर्म और छल-कपट हो, और दूसरी ओर सत्य और धर्म — तो हमें सही पक्ष चुनने की समझ होनी चाहिए। यह ब्लॉग केवल विरोध करना नहीं सिखाता, बल्कि यह दिखाता है कि किसका समर्थन करना चाहिए, किस स्तर पर और किस तरीके से। चाहे बात निजी जीवन की हो, ऑफिस की राजनीति की हो, या फिर सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों की — हमें हमेशा यह तय करना होता है कि हमें किसका साथ देना चाहिए और कैसे देना चाहिए। महाभारत से हम 5 महत्वपूर्ण सबक सीख सकते हैं, जो हमें यह निर्णय लेने में मदद करेंगे कि हमें कहाँ, किसके पक्ष में और किस सीमा तक खड़ा होना चाहिए। 1️⃣ हमेशा सत्य और सही का साथ दो, चाहे विरोधी कितना भी शक्तिशाली हो महाभारत में उदाहरण: पांडवों की भूमि (इंद्रप्रस्थ) छल से छीन ली गई थी, लेकिन उन्होंने न्याय के लिए शांति से प्रयास किए। जब दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया “सूई ...

Devil at My Heels: Louis Zamperini एक महान इंसान की अदम्य जीवटता की कहानी

Devil at My Heels: एक महान इंसान की अदम्य जीवटता की कहानी "If you can take it, you can make it." – Louis Zamperini कुछ कहानियाँ सिर्फ प्रेरणा नहीं देतीं, बल्कि हमारी सोच को हमेशा के लिए बदल देती हैं। Louis Zamperini की जीवन गाथा  "Devil at My Heels"  ऐसी ही एक अविस्मरणीय यात्रा है, जो हमें सिखाती है कि इंसान की इच्छाशक्ति कितनी अपराजेय हो सकती है। यह केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि मानवीय साहस, क्षमाशीलता और पुनर्जन्म की एक अमर गाथा है जो आज भी हमारे समय में उतनी ही प्रासंगिक है। शरारती बच्चे से ओलंपिक चैंपियन तक 1917 में न्यूयॉर्क में जन्मे Louis बचपन में बेहद शरारती और मुसीबत में पड़ने वाले बच्चे थे। उनके माता-पिता को अक्सर स्कूल से शिकायतें मिलती रहती थीं। लेकिन जैसा कि कहते हैं,  "हर तूफान के बाद इंद्रधनुष आता है"  - दौड़ने की प्रतिभा ने उनकी ज़िंदगी की दिशा पूरी तरह बदल दी। 1936 के बर्लिन ओलंपिक  में वे सबसे कम उम्र के अमेरिकी ट्रैक एथलीट बने। उस समय जब पूरी दुनिया Hitler के आतंक से डरी हुई थी, युवा Louis ने न केवल 5000 मीटर में शानदार प्रदर्श...