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नैमिषारण्य तीर्थ का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व और धर्मचक्र का वास्तविक अर्थ

  नैमिषारण्य तीर्थ का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व और धर्मचक्र का वास्तविक अर्थ प्रस्तावना नैमिषारण्य (चक्र तीर्थ) उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले में स्थित एक प्राचीन तीर्थ है। ऋषियों की तपोभूमि, ज्ञान एवं साधना का केंद्र, और बहुधार्मिक परंपराओं—हिंदू, बौद्ध, जैन—में किसी न किसी रूप में इसका उल्लेख मिलता है। प्रश्न यह है कि क्या यह केवल आस्था का स्थल है, या इसके पीछे कोई गहन दार्शनिक संकेत भी निहित है? “नैमिषारण्य” को तीन भागों में समझा जा सकता है—‘नै’ (क्षण/क्षणिक), ‘मिष’ (दृष्टि), ‘अरण्य’ (वन)। भावार्थ है—ऐसा वन जहाँ क्षणभर में आत्मदृष्टि या आत्मबोध संभव हो। प्राचीन ग्रंथों में नैमिषारण्य ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और अनेकों पुराणों में इस क्षेत्र का विस्तार से वर्णन है। महाभारत परंपरा में इसे वह स्थान माना गया जहाँ वेदव्यास ने पुराणकथा-वाचन की परंपरा को स्थिर किया। पांडवों के वनवास प्रसंगों में यहाँ ध्यान-तप का उल्लेख मिलता है। रामायण में शत्रुघ्न द्वारा लवणासुर-वध और इसके धार्मिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा का वर्णन है। स्कन्द पुराण इसे “तीर्थराज” कहता है; शिव पुराण में शिव-प...

भारत का धार्मिक इतिहास: वैदिक साधना से बुद्ध और नवयान तक

 भारत का धार्मिक इतिहास: वैदिक साधना से ब्राह्मणवाद तक, फिर बुद्ध और नवयान की क्रांति

जब वैदिक धर्म सत्ता और कर्मकांडों का गुलाम बन गया

प्रारंभिक वैदिक काल (1500 ईसा पूर्व – 1000 ईसा पूर्व) में धर्म एक उदार, लचीला और ज्ञान-प्रधान मार्ग था।
उस समय प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती थी। मूर्तिपूजा या जटिल कर्मकांड प्रचलित नहीं थे। जातियाँ जन्म आधारित नहीं थीं।
स्त्रियाँ और शूद्र वेद पढ़ सकते थे और विदुषियों को समाज में सम्मान प्राप्त था। धर्म भय पर आधारित नहीं था, बल्कि आत्मज्ञान का साधन माना जाता था।

उत्तरवैदिक काल (1000 ईसा पूर्व – 600 ईसा पूर्व) में स्थिति बदलने लगी।
ब्राह्मणों ने वेदों की व्याख्या पर अपना एकाधिकार जमा लिया।
कर्मकांड और यज्ञ इतने जटिल और महंगे हो गए कि आम जनता के लिए धर्म का पालन असंभव हो गया।
जातियाँ जन्म आधारित कर दी गईं और स्त्रियों व शूद्रों को वेद अध्ययन से वंचित कर दिया गया।
धर्म अब ज्ञान की खोज से हटकर दंड और भय से नियंत्रित होने लगा। राजा भी धीरे-धीरे ब्राह्मणों के अधीन हो गए।


जब ब्राह्मणों ने विशेष धार्मिक कानून बनाए

ऋग्वेद के पुरुष सूक्त (10.90) में कहा गया कि ब्राह्मण मुख से और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए। इस विचार ने जातिवाद को धार्मिक वैधता प्रदान की।

मनुस्मृति (200 ईसा पूर्व – 200 ईस्वी) में शूद्रों को सेवा तक सीमित किया गया। वेद सुनने पर उनके कानों में पिघला हुआ सीसा डालने जैसी सजाएँ बताई गईं। स्त्रियों को भी पुरुषों की सेवा तक सीमित कर दिया गया।

शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण जैसे ग्रंथों में ब्राह्मणों को करमुक्त भूमि और राजा से भी ऊँचा स्थान प्रदान किया गया।
इस प्रकार धर्म आत्मज्ञान से भटककर सामाजिक नियंत्रण का साधन बन गया।


किन राजाओं ने ब्राह्मणवाद को बढ़ावा दिया

अजातशत्रु, प्रसेनजित, बिंबिसार और शिशुनाग वंश के शासकों ने ब्राह्मणवाद को सत्ता के केंद्र में स्थापित किया।
उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ करवाए, ब्राह्मणों को कर-मुक्त भूमि दी और उन्हें धार्मिक सलाहकारों के रूप में ऊँचा दर्जा दिया।


जब ब्राह्मणवाद कठोर सत्ता में बदल गया

321 ईसा पूर्व से 75 ईसा पूर्व तक का समय ब्राह्मणवाद की कठोर सत्ता का काल रहा।
मौर्य साम्राज्य में बौद्ध धर्म ने बल पाया, लेकिन शुंग वंश ने आते ही बौद्ध धर्म पर आक्रमण शुरू किए।
भिक्षुओं की हत्याएँ की गईं, मठों को नष्ट किया गया और अश्वमेध जैसे वैदिक यज्ञों को फिर से स्थापित किया गया।
धर्म पूरी तरह सत्ता और राजनीति का उपकरण बन चुका था।


गौतम बुद्ध: जब धर्म सत्ता और जातिवाद से मुक्त हुआ

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में गौतम बुद्ध ने इस कठोर धार्मिक व्यवस्था को चुनौती दी।
उन्होंने कहा कि कोई भी व्यक्ति जन्म से ऊँचा या नीचा नहीं होता।
उनके संघ में सभी जातियों के लोग शामिल हो सकते थे। चुंदा, उपलि और सुजात जैसे शूद्र समुदाय के लोग बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में रहे।
बुद्ध ने स्त्रियों को भी भिक्षुणी बनने की अनुमति दी।

संघ एक लोकतांत्रिक संस्था थी। इसमें प्रवेश करने पर कोई प्रतिबंध नहीं था और न ही राजा इसका नियंत्रण कर सकते थे।
राजा बिंबिसार, अजातशत्रु और विशेषकर सम्राट अशोक ने बुद्ध के विचारों को समर्थन दिया।
इस प्रकार बुद्ध का धर्म केवल मोक्ष का मार्ग नहीं रहा, बल्कि सामाजिक क्रांति का माध्यम भी बना।


बौद्ध धर्म का पतन: जब सत्ता और राजनीति ने धर्म को कुचल दिया

अशोक के काल में बौद्ध धर्म ने स्वर्ण युग देखा।
यह पूरे एशिया में फैला, विश्वविद्यालय और स्तूप बने और धम्म नीति से समाज में अहिंसा और शांति का वातावरण बना।

लेकिन शुंग वंश ने बौद्ध धर्म पर हिंसक आक्रमण किए। पुष्यमित्र शुंग ने भिक्षुओं की हत्या करवाई और मठों को नष्ट किया।
गुप्त काल में ब्राह्मणवादी ग्रंथों को पुनर्लिखा गया, जिसमें बौद्ध धर्म को हाशिये पर धकेल दिया गया।
बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर उनकी स्वतंत्र पहचान मिटा दी गई।

भाषाई स्तर पर भी बौद्ध धर्म कमजोर हुआ। पालि को छोड़ संस्कृत को संरक्षण मिला।
अंततः 1193 ईस्वी में बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया।
बौद्ध धर्म भारत में सीमित होकर रह गया।


आदि शंकराचार्य: हिंदू धर्म का पुनर्जीवन और बौद्ध धर्म का विलय

आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत को स्थापित किया।
उन्होंने बौद्ध विचारों को आत्मसात करते हुए हिंदू धर्म को नया जीवन दिया।
बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित किया गया।
शंकराचार्य ने बद्रीनाथ, रामेश्वरम, पुरी और द्वारका में चार मठों की स्थापना की।
इस प्रकार ब्राह्मणवाद फिर से मज़बूत हो गया और बौद्ध धर्म धीरे-धीरे हिंदू धर्म में समाहित हो गया।


भक्ति आंदोलन और हिंदू धर्म का पुनर्जागरण

तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच कबीर, रविदास और तुलसीदास जैसे संतों ने जातिवाद और कर्मकांडों का विरोध किया।
भक्ति आंदोलन ने समानता और भक्ति पर आधारित धर्म की धारा को जन्म दिया।
हालाँकि जाति व्यवस्था पूरी तरह समाप्त नहीं हुई।
मुगल काल में धर्म और अधिक संगठित हो गया और बाद में उन्नीसवीं–बीसवीं सदी में विवेकानंद और गांधी जैसे नेताओं ने सुधारों को आगे बढ़ाया।


आधुनिक भारत में बौद्ध धर्म का पुनर्जागरण: डॉ. अंबेडकर और नवयान आंदोलन

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने महसूस किया कि हिंदू धर्म में दलितों के लिए समानता संभव नहीं है।
14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने लगभग पाँच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
यही से नवयान बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई।

इस नए रूप में आत्मा, भगवान और पुनर्जन्म जैसी धारणाओं को अस्वीकार कर दिया गया।
अंबेडकर ने 22 प्रतिज्ञाएँ दिलाईं, जिनमें जातिवाद और ब्राह्मणवाद का विरोध स्पष्ट था।
नवयान आंदोलन ने बौद्ध धर्म को सामाजिक क्रांति का प्रतीक बना दिया।


क्या बौद्ध धर्म भारत में फिर से मुख्यधारा बन सकता है?

आज भी यह सवाल प्रासंगिक है।
यदि सामाजिक समानता की माँग बढ़े, यदि राजनीतिक समर्थन मिले और यदि मजबूत शिक्षा व नेतृत्व खड़ा हो सके तो बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान की संभावना है।

लेकिन हिंदू धर्म की गहरी जड़ें और बौद्ध नेतृत्व की कमी इस मार्ग की सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं।
इतिहास हमें बताता है कि धर्म केवल आध्यात्मिक विचार नहीं होता, बल्कि समाज, सत्ता और संघर्ष से गहराई से जुड़ा होता है।

गौतम बुद्ध का धर्म आज भी जीवित है।
शायद सीमित हो, लेकिन उसकी चिंगारी अभी भी बुझी नहीं है।


संदर्भ

डॉ. बी. आर. अंबेडकर – The Buddha and His Dhamma

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