सर्वचेतनावाद क्या है? – परिभाषा और मुख्य विचार
सर्वचेतनावाद (Panpsychism) दर्शन का वह दृष्टिकोण है जिसमें माना जाता है कि मन या चेतना वास्तविकता का एक मौलिक और सर्वव्याप्त तत्त्व है। सरल शब्दों में, इस सिद्धांत के अनुसार ब्रह्मांड की हर वस्तु में किसी न किसी रूप में चेतन अथवा मानसिक गुण मौजूद हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हर चीज़ सोच-विचार करने वाली "मनुष्य जैसी" चेतना रखती है, बल्कि यह कि परमाणुओं या कणों जैसे सबसे बुनियादी अवयवों में भी एक सूक्ष्म अनुभव या अनुभूति का पहलू होता है। वर्तमान दर्शनशास्त्र की भाषा में, सर्वचेतनावाद कहता है कि चेतना उतनी ही मूलभूत है जितना द्रव्य या ऊर्जा।
इस दृष्टिकोण का एक लंबा इतिहास रहा है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक थेलीस से लेकर प्लेटो, स्पिनोज़ा, लाइबनिट्स, शोपनहावर और विलियम जेम्स जैसे पश्चिमी विचारकों ने कभी न कभी यह धारणा अपनाई या उस पर चर्चा की, 19वीं सदी में तो पश्चिमी दर्शन में मन और चेतना को समझने के लिए सर्वचेतनावादी सोच काफ़ी प्रचलित थी, परंतु 20वीं सदी के मध्य में तार्किक प्रत्यक्षवाद (Logical Positivism) के उदय के साथ इस विचारधारा को दरकिनार कर दिया गया। अब 21वीं सदी में विज्ञान और दर्शन में नई प्रगति के चलते यह सिद्धांत पुनः चर्चा में आ गया है
सर्वचेतनावाद के कई रूप हैं, पर इन सबमे सामान्य बात यह है कि हमारे अपने अनुभवों से परिचित चेतना किसी न किसी रूप में हर प्राकृतिक वस्तु में मौजूद है। आधुनिक समर्थक संवेदनशीलता या अनुभूति को प्रत्येक भौतिक कण का गुण मानते हैं, हालांकि वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि पेड़-पत्थर जैसी जटिल वस्तुओं में मानवीय मन जैसी चेतना नहीं होती। बल्कि, चेतना के बहुत ही प्रारंभिक या आदिम रूप अणु-परमाणु स्तर पर हैं, जो मिलकर उच्च स्तर की चेतना का निर्माण कर सकते हैं। इस प्रकार सर्वचेतनावाद भौतिक दुनिया में चेतना की सर्वव्यापकता का सिद्धांत है।
आधुनिक पश्चिमी दर्शन में इसकी लोकप्रियता क्यों बढ़ रही है?
पिछले कुछ दशकों में सर्वचेतनावाद को पुनर्जीवित करने में सबसे बड़ा योगदान “चेतना की कठिन समस्या” (Hard Problem of Consciousness) की बहस का रहा है। दार्शनिक डेविड चाल्मर्स ने 1990 के दशक में यह शब्द गढ़ा था, जिसका सार यह है: हम मस्तिष्क की प्रक्रियाओं को समझकर भी यह नहीं समझ पाते कि इन भौतिक घटनाओं के साथ अनुभूति या पहले-व्यक्ति चेतना कैसे जुड़ी है। सरल शब्दों में, विद्युत-रासायनिक संदेशों और न्यूरॉनों की गतिविधियों से "लाल रंग दिखने पर लाल दिखाई देने का अनुभव" या दर्द का एहसास क्योंकर उत्पन्न होता है – यह गुत्थी सुलझती नहीं दिख रही। अधिकांश भौतिकवादी व्याख्याएँ इस व्याख्यात्मक अंतर (explanatory gap) को पाटने में अब तक असमर्थ रही हैं। यही वह सन्दर्भ है जिसमें कुछ दार्शनिकों ने सर्वचेतनावाद की ओर रुख किया है, क्योंकि यह कठिन समस्या को सीधे संबोधित करता है।
दरअसल, सर्वचेतनावाद अपने समर्थकों के लिए द्वैतवाद (mind-body dualism) और भौतिकवाद (physicalism) के बीच एक आकर्षक मध्य-मार्ग प्रस्तुत करता है। द्वैतवाद आत्मा और पदार्थ को बिल्कुल भिन्न मानकर दोनों के अन्तर्संबंध को रहस्यमय छोड़ देता है, जबकि कट्टर भौतिकवाद में चेतना की विशिष्टता खो जाती है या उसे सिरे से नकार दिया जाता है। भौतिकवादी दृष्टिकोण एक एकीकृत वैज्ञानिक चित्र तो देता है, लेकिन मानव तथा पशु चेतना के उद्भव की संतोषजनक व्याख्या करने में चूक जाता है। ऐसे में सर्वचेतनावाद भले ही पहली नज़र में अजीब लगे, यह वादा करता है कि प्रकृति की समग्र रूप से ऐसी तस्वीर मिलेगी जिसमें मन (चेतना) एक बुनियादी स्थान पर है और उभरते गुण (emergent properties) की पहेली आसान हो जाएगी।
इसके अलावा, आधुनिक स्नायुविज्ञान (neuroscience) और क्वांटम भौतिकी के कुछ पहलुओं ने भी इस विचार में रुचि बढ़ाई है। उदाहरण के लिए, Integrated Information Theory (IIT) जैसे चेतना सिद्धांत प्रस्तावित करते हैं कि चेतना व्यापक हो सकती है और अपेक्षाकृत सरल प्रणालियों में भी पाई जा सकती है। जाने-माने तंत्रिका वैज्ञानिक क्रिस्टोफ़ कोख तक यह विचार खुलेमन से लेते हैं कि संभवतः सूक्ष्म स्तर पर भी अनुभूति मौजूद हो सकती है। कुछ विचारक तो यह प्रश्न भी उठाते हैं कि क्या क्वांटम स्तर पर चेतना जैसी कोई विशेषता घटकों में निहित हो सकती है। इस प्रकार विज्ञान में कुछ हद तक हिलोर आने और पारंपरिक भौतिकवादी ढाँचे की सीमाएँ उजागर होने से, चेतना को बुनियादी मानने वाले दृष्टिकोण को बल मिला है।
संक्षेप में, जब चेतना की गुत्थी सुलझाने के पारंपरिक प्रयास असफल दिखते हैं, तो सर्वचेतनावाद एक वैकल्पिक समाधान की तरह उभरता है – शायद चेतना को समझने के लिए हमें मानना पड़े कि यह हर जगह है। भले ही यह सुनने में सीधा समाधान लग सकता है (“हम चेतन हैं क्योंकि सबकुछ चेतन है”), किंतु समालोचकों की राय में यह वास्तव में कठिन समस्या का हल नहीं बल्कि उसकी परिभाषा को ही बदल देने जैसा है। फिर भी, बढ़ती चर्चा का केंद्रीय कारण यही है कि सर्वचेतनावाद चेतना को प्रकृति की मूलभूत पहेली के रूप में स्वीकार करता है, बजाय उसे मस्तिष्क की केवल जटिल गतिविधि मानने के।
प्रमुख विचारक और उनका योगदान
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में सर्वचेतनावाद के पुनरुत्थान का श्रेय कुछ प्रमुख दार्शनिकों को जाता है:
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थॉमस नैجل (Thomas Nagel) – सन् 1979 में थॉमस नैगल ने "Panpsychism" शीर्षक लेख में तर्क दिया कि कुछ मान्यताओं के अधार पर चलते हुए हमें निष्कर्षतः सर्वचेतनावाद को स्वीकारना पड़ सकता है। नैगल ने चेतना की विशिष्टता और भौतिकवाद की अपर्याप्तता पर ज़ोर दिया। उनके अनुसार यदि (1) सब कुछ भौतिक है, (2) चेतना को निम्नतर भौतिक गुणों में नहीं घटाया जा सकता, (3) फिर भी चेतना का अस्तित्व सुनिश्चित है, और (4) उच्च-स्तरीय गुण अपने निम्नतर स्तरों से व्युत्पन्न होते हैं – तो इन सभी मान्यताओं के सत्य होने पर निष्कर्ष निकलता है कि चेतना भौतिक पदार्थ का ही एक अनूठा गुण है, अर्थात सर्वचेतनावाद सत्य है। इस तरह नैगल ने विचारोत्तेजक ढंग से इस पुराने सिद्धांत को नया आयाम दिया।
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गैलेन स्ट्रॉसन (Galen Strawson) – समकालीन दार्शनिकों में प्रो. स्ट्रॉसन सर्वचेतनावाद के प्रखर पक्षधर हैं। उनके 2006 के चर्चित लेख “Realistic Monism: Why Physicalism Entails Panpsychism” में उन्होंने दलील दी कि यदि हम सच्चे अर्थों में भौतिकवादी हैं तो हमें पदार्थ की परिभाषा में अनुभव या चेतना को शामिल करना ही होगा। स्ट्रॉसन का तर्क था कि चूंकि हमारे मस्तिष्क जैसे भौतिक पिंड चेतना उत्पन्न करते हैं, तो चेतना को पदार्थ से अलग नहीं किया जा सकता – बल्कि पदार्थ की मूल प्रकृति में ही सूक्ष्म चेतना शामिल होगी। इसे उन्होंने "यथार्थवादी एकत्ववाद" कहा, जो भौतिकवाद और चेतनावाद का सम्मिश्रण है। उनका काम हाल के वर्षों में सर्वचेतनावाद को अकादमिक वैधता दिलाने में अहम रहा है।
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फिलिप गॉफ़ (Philip Goff) – युवा दार्शनिक फिलिप गॉफ़ आज के सर्वचेतनावादी विमर्श के मुख्य चेहरों में से हैं। गॉफ़ ने व्यापक जनता के लिए "Galileo’s Error: Foundations for a New Science of Consciousness" जैसी पुस्तक लिखी है जिसमें वे तर्क देते हैं कि विज्ञान को चेतना को मौलिक मानकर नई शुरुआत करनी चाहिए। गॉफ़ panpsychism और panexperientialism में अंतर बताते हैं – उनके अनुसार वर्तमान चर्चा में सर्वव्यापक अनुभूति (अनुभवात्मक सर्वचेतनावाद) की बात हो रही है, न कि सर्वव्यापक सोचने-वाली बुद्धि की।
गॉफ़ के अनुसार चेतना यदि हर स्तर पर थोड़ी-थोड़ी विद्यमान है तो हमें मानव मस्तिष्क में उसके उभरने पर उतना आश्चर्य नहीं होगा। उन्होंने कई तर्क दिए कि भौतिक विज्ञान द्रव्य के मात्र बाह्य गुण बताता है; आंतरिक गुण संभवतः अनुभवजन्य (phenomenal) हो सकते हैं। गॉफ़ के नेतृत्व में आज कई गोष्ठियाँ, शोधपत्र और संवाद हो रहे हैं जो सर्वचेतनावाद को मुख्यधारा दार्शनिक विमर्श में लाने का काम कर रहे हैं।
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अल्फ्रेड नॉर्थ वाइटहेड (A.N. Whitehead) – यद्यपि वाइटहेड 20वीं सदी के आरंभ के दार्शनिक थे, उन्हें आधुनिक सर्वचेतनावाद का एक पूर्वज माना जा सकता है। वाइटहेड के प्रक्रियावादी दर्शन (Process Philosophy) में विचार था कि ब्रह्माण्ड के मूल तत्व "अनुभव की घटनाएँ" (occasions of experience) हैं। हर सूक्ष्म घटक में अनुभवण का एक अंश है और वे मिलकर जटिल प्राणियों की चेतना का निर्माण कर सकते हैं। उन्होंने यांत्रिक परमाणुओं के बजाय प्रक्रियाओं और घटनाओं को वास्तविकता की ईकाई माना, जिनमें भौतिक तथा मानसिक पहलू अभिन्न हैं। वाइटहेड का यह "пनुभववाद" (panexperientialism) सर्वचेतनावाद का ही एक रूप है। उनके विचार ने आगे चलकर चार्ल्स हार्टशॉर्न जैसे विचारकों और प्रक्रियावादी धर्ममीमांसा को प्रभावित किया। आज के कई शोधकर्ता वाइटहेड के सिद्धांतों को आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में फिर से व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहे हैं।
उपर्युक्त नामों के अलावा डेविड स्क्रिबिना, टिमोथी स्प्रिग, विलियम सीगर और ग्रेग रोज़ेनबर्ग जैसे दार्शनिकों ने भी हाल के वर्षों में सर्वचेतनावाद का पक्ष लिया है। कुछ वैज्ञानिक एवं चिंतक – जैसे न्यूरोसाइंटिस्ट क्रिस्टोफ़ कोख, लेखिका ऐन्नाका हैरिस, एवं मनोवैज्ञानिक डॉनल्ड हॉफमैन – ने भी चेतना की प्रकृति पर विचार करते हुए सर्वचेतनावाद को एक संभावित दृष्टिकोण के रूप में माना है। हालाँकि, इन में से सभी पूर्णतः इस मत के समर्थक नहीं हैं, लेकिन उन्होंने इसे संभव समाधान की तरह प्रस्तुत किया है।
सर्वचेतनावाद की आलोचना और चुनौतियाँ
सर्वचेतनावाद जितना रोचक प्रतीत होता है, उतनी ही गंभीर आलोचनाएँ भी इसकी गई हैं। सबसे बड़ी सैद्धांतिक चुनौती जिसे लगभग सभी पक्ष-विपक्ष के दार्शनिक स्वीकारते हैं, वह है “संयोजन की समस्या” (Combination Problem)। यदि हम मान लें कि सूक्ष्म कणों में सूक्ष्म चेतना है, तो सवाल उठता है कि जब अरबों कण मिलकर हमारा मस्तिष्क बनाते हैं, तो उन तमाम "छोटी-छोटी चेतनाओं" से एक एकल, एकीकृत चेतना कैसे उत्पन्न हो जाती है? हम अपने भीतर असंख्य सूक्ष्म अनुभूतियों का भंडार महसूस नहीं करते, बल्कि एक अखंड चेतन अनुभव महसूस करते हैं। यह समझना कठिन है कि कई "सूक्ष्म अनुभवों" का योग किसी तरह एक "विशाल अनुभव" (जैसे मानव मन) को जन्म देता है।
विलियम जेम्स ने 1890 में इसी संदर्भ में लिखा था कि सौ अलग-अलग चेतन अनुभूतियों को चाहे जितना करीब लाया जाए, वे अपने-आप एक 101वें नए अनुभव में विलय नहीं हो जातीं; यदि कोई समष्टि चेतना उभरती भी है, तो वह पूर्णतया नया गुण होगा जिसे उसके अवयवों से समझा नहीं जा सकता। इस विलय की गुत्थी पर आज भी शोध चल रहा है और फिलहाल आम राय यह है कि इसका पूर्ण समाधान हमारे पास नहीं है।
एक अन्य आम आपत्ति यह है कि सर्वचेतनावाद को मानने के लिए हमारे पास ठोस अनुभवजन्य प्रमाण नहीं हैं। हम किसी निर्जीव वस्तु – जैसे पत्थर या इलेक्ट्रॉन – में चेतना के चिह्न प्रत्यक्ष रूप से नहीं देख पाते
विज्ञान चेतना को अभी तक उन जटिल तंत्रिकातंत्रों से जोड़कर देखता है जो मस्तिष्क जैसे अंगों में मिलते हैं। ऐसे में हर कण को चेतन बताने वाला सिद्धांत कई वैज्ञानिकों को अनावश्यक और अप्रमाणित प्रतीत होता है।
कुछ आलोचक तीखे शब्दों में कहते हैं कि सर्वचेतनावाद कठिन समस्या का हल प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि एक प्रकार से यह कह देता है कि “अगर समझ नहीं आ रहा कि चेतना कैसे आती है, तो मान लो सबमें पहले से थी” – यह एक दार्शनिक छलावा भर है जो समस्या को टाल देता है।
भौतिकवादी विचारक पूछते हैं कि जब हमें जीवन की उत्पत्ति समझ नहीं आती, तो क्या हम यह मान लेते हैं कि कण-कण जीवित हैं? नहीं, हम धैर्यपूर्वक वैज्ञानिक तरीकों से समस्या हल करते हैं। उसी तरह चेतना के रहस्य पर तुरंत निष्कर्ष नहीं लगाना चाहिए।
वैज्ञानिक प्रगति के सन्दर्भ में भी आलोचना होती है: जहाँ एक ओर न्यूरोविज्ञान व मनोविज्ञान चेतना को समझने में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं (उदाहरणतः मस्तिष्क को उत्तेजित करके या औषधियों द्वारा चेतना की अवस्था बदलकर हम चेतना को प्रभावित कर सकते हैं, अर्थात यह मस्तिष्क से जुड़ी है), वहीं सर्वचेतनावाद ने कोई नयी पूर्वानुमानित शक्ति या परीक्षण योग्य परिकल्पना आगे नहीं बढ़ाई है।
ऐसे में कुछ लोगों का आरोप है कि यह सिद्धांत सैद्धांतिक चर्चा से आगे नहीं बढ़ पाता। हार्वर्ड के मनोवैज्ञानिक स्टीवन पिंकर जैसे विद्वान इसे "नॉन-एक्सप्लेनेशन" (निरर्थक व्याख्या) कहते हैं – यानि यह हमें नया मेकेनिज़्म नहीं बताता, सिर्फ कहता है "चेतना सर्वत्र है" और मामला ख़त्म। इसी प्रकार जेरी कॉयन जैसे जैव वैज्ञानिक इसे सिरे से ख़ारिज करते हुए यहाँ तक कहते हैं कि यह सच्ची विज्ञान-समझ के अभाव में गढ़ा गया एक आकर्षक लेकिन बेबुनियाद विचार है।
भौतिकवादी दार्शनिक भी चेतना की कठिन समस्या का हल सर्वचेतनावाद में देखने को तैयार नहीं। डैनियल डेनेट ने तो खुद चेतना के हमारे आम समझ को ही एक "भ्रम" कहा है – उनके मुताबिक "चेतन अनुभव" के बारे में हम जो सोचते हैं, वह जटिल दिमागी क्रियाओं की एक कॉग्निटिव माया है।
पैट्रिशिया चर्चलैंड जैसी न्यूरादार्शनिक कहती हैं कि अभी मस्तिष्क-विज्ञान शैशवास्था में है; जैसे-जैसे हम भौतिक मस्तिष्क को बेहतर समझेंगे, चेतना की पहेली भी सुलझेगी, हमें किसी अतिरेक सिद्धांत की जरूरत नहीं। इन विचारकों के लिए सर्वचेतनावाद जल्दबाजी का निष्कर्ष है। वे तर्क देते हैं कि पहले भी जीवनी शक्ति (vitalism) जैसी धारणाएँ पेश की गईं थीं जब जीवन की व्याख्या कठिन लग रही थी, परंतु अंततः विज्ञान ने प्राकृतिक कारण खोज लिए। उसी तरह चेतना के लिए भी शायद धैर्य रखना चाहिए, बजाय यह मानने के कि कण-कण में आत्मा डाल के हम समस्या हल कर लेंगे।
सार यह कि आज भले ही सर्वचेतनावाद फिर से लोकप्रिय विमर्श में है, पर इस पर गंभीर आपत्तियाँ मौजूद हैं। खासकर संयोजन समस्या (सूक्ष्म चेतनाओं से व्यापक चेतना बनना) एक गहरा विचारोद्दीपक पहेली बनी हुई है।
स्वयं अधिकांश सर्वचेतनावादी मानते हैं कि उनके सिद्धांत के समक्ष यह चुनौती असल है, और इसका संतोषजनक समाधान भविष्य के शोध पर निर्भर है। वे यह भी तर्क देते हैं कि जैसे विकासवाद (डार्विन के जमाने में) के बहुत बाद आकर आनुवंशिकी ने उसकी बारीकियों को समझाया, वैसे ही चेतना को मूलभूत मानने के सिद्धांत की बारीक़ियाँ समझने में भी समय लगेगा फिर भी, जब तक इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता, संशयवाद और आलोचना का बने रहना स्वाभाविक है।
भारतीय दर्शन से तुलना
चेतना को लेकर पश्चिमी दर्शन में चल रही नई बहस की पृष्ठभूमि में एक रोचक बात यह है कि भारतीय दार्शनिक परंपराओं में कई सदियों से ऐसे विचार मौजूद रहे हैं जो कुछ हद तक मिलते-जुलते हैं। यद्यपि भारतीय दर्शनों के लक्ष्य और प्रसंग भिन्न थे, फिर भी चेतना और जड़ पदार्थ के संबंध पर वहां गहन चिंतन हुआ है। नीचे हम संक्षेप में तीन प्रमुख भारतीय दर्शनों की दृष्टि से इस विमर्श की तुलना करेंगे:
(क) अद्वैत वेदांत – ब्रह्म एवं चेतना:
वेदांत दर्शन की अद्वैत (अद्वैत = "द्वैत रहित", non-dual) शाखा में ब्रह्म को परम सत्य माना गया है, जिसे "सत-चित-आनंद" (अस्तित्व, चेतना और आनंद) की स्वरूपावस्था में परिभाषित किया जाता है। अद्वैत वेदांत के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है – निरपेक्ष, निराकार, शुद्ध चेतना। जगत् या भौतिक विश्व को माया (भगवान की शक्ति से उत्पन्न प्रत्यक्ष वास्तविकता, जो परम सत्य नहीं) माना जाता है। शंकराचार्य के अद्वैत मत में जीवात्मा (व्यक्तिगत आत्मा) और ब्रह्म (परमात्मा) अभिन्न हैं; जीवात्मा का वास्तविक सार चेतना ही है, जो ब्रह्म से भिन्न नहीं है। इस दृष्टिकोण में पूरी सृष्टि की आत्मा एक ही है – वह ब्रह्म स्वयं है। बाहरी विभेद और भौतिक विविधता अज्ञान जनित माया के कारण प्रतीत होते हैं। इस तरह देखा जाए तो अद्वैत वेदांत चेतना को ही जगत का आधार बताता है, जो सर्वत्र व्याप्त है। यह बात सर्वचेतनावाद से मिलती-जुलती ज़रूर है कि चेतना को सर्वव्यापक और मौलिक कहा जा रहा है, किन्तु एक महत्वपूर्ण अंतर है: अद्वैत में अंतिम सत्य एक निरपेक्ष चेतन सत्ता है (एक ही ब्रह्म), जबकि सर्वचेतनावाद में अनेक भौतिक इकाइयों में चेतना के अंश अलग-अलग रूप में निहित माने जाते हैं। अ
द्वैत का दृष्टिकोण मूलतः अद्वैतवादी आदर्शवाद है – जगत ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है – इसलिए वहाँ किसी भौतिक पदार्थ का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार्य नहीं, केवल ब्रह्म ही सत्य है। सर्वचेतनावाद, इसके विपरीत, भौतिक संसार को वास्तविक मानकर चलती है, पर हर भौतिक वस्तु में मानसिक/चेतन गुण जोड़ती है। फिर भी, दोनों दृष्टिकोण चेतना को बुनियादी मानने के कारण तुलनात्मक रूप से ध्यान खींचते हैं। वास्तव में कुछ समकालीन विद्वानों ने अद्वैत वेदांत और panpsychism के बीच समानताओं पर अध्ययन भी किया है। एक अंतर यह भी है कि अद्वैत वेदांत में आत्मा-परमात्मा की एकता व्यक्ति के आध्यात्मिक अनुभव और मोक्ष से जुड़ी है, जबकि पश्चिमी सर्वचेतनावाद मुख्यतः दिमाग और चेतना की वैज्ञानिक/दार्शनिक पहेली के परिप्रेक्ष्य में उठाया गया विचार है।
(ख) बौद्ध दृष्टिकोण – चित्त मात्र व क्षणिक चेतना:
बौद्ध दर्शन के विभिन्न संप्रदायों में भी चेतना-पदार्थ संबंध पर रोचक अवधारणाएँ मिलती हैं, हालांकि उनका स्वरूप सर्वचेतनावाद से अलग है। महायान बौद्ध परंपरा में योगाचार या विज्ञानवाद (Yogachara / Vijñānavāda) नामक एक मत है जिसे चित्त-मात्र सिद्धांत कहा जाता है। योगाचार के अनुसार सारी अनुभव होने वाली वास्तविकता मूलतः चेतना ही है; जो बाह्य जगत हमें दिखता है वह चित्त की परिकल्पना अथवा प्रक्षेपण मात्र है। इसे कहा जाता है "* सर्वमिदं विज्ञानमात्रं*" – तीनों लोक केवल मन ही हैं। यह मत एक प्रकार के आदर्शवाद की तरह है जहाँ भौतिक वस्तुओं की स्वतंत्र सत्ता नहीं है; केवल चेतना के विभ्रम से नाम-रूप प्रकट होते हैं
ध्यान दें कि बौद्ध विज्ञानवाद हर वस्तु में अलग-अलग आत्मा होने की बात नहीं कहता, बल्कि यह कहता है कि वस्तुओं की स्वतंत्र अस्तित्व की धारणा भ्रांति है – सब कुछ चेतना के धरातल पर ही चल रहा है। यह अद्वैत वेदांत से भी अलग है क्योंकि बौद्ध मत में कोई स्थायी ब्रह्म या आत्मा नहीं, केवल क्षणिक चित्तधाराएँ हैं।
दरअसल प्रस्थापक बुद्ध धर्म में अनात्मवाद (no-self) एवं क्षणिकता के सिद्धांत केंद्रीय हैं। बौद्ध दृष्टि में कोई स्थायी आत्म-सत्ता नहीं होती; व्यक्तित्व पाँच स्कंधों (form, feeling, perception, mental formations, consciousness) का समूह है, जो क्षण-प्रतिक्षण बदलता रहता है। विज्ञान स्कंध अर्थात चेतना भी एक निरंतर बहने वाली धारा है, जिसके प्रत्येक क्षण अलग है – इसे क्षणभंगुर चेतना कहते हैं। प्रत्येक क्षण की चेतना अपने से पूर्ववर्ती क्षण की चेतना और अन्य कारकों पर निर्भर उभरती है।
इस प्रकार, बौद्ध दर्शन चेतना को मूलभूत तत्व भले माने (विशेषकर योगाचार मत में), पर वह इसे स्वतंत्र या सार्वभौम नहीं मानता, न ही जड़ कणों तक चेतना को विस्तारित करता है। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने भी विचार किया था कि निर्जीव पदार्थ से चेतना कैसे उत्पन्न हो सकती है – यह उनके लिए भी एक दार्शनिक समस्या थी। कुछ बौद्ध विचारों ने इस मुश्किल से निपटने के लिए ही चित्तमात्र जैसी अवस्थिति अपनाई, ताकि कहना न पड़े कि जड़ से चैतन्य आ रहा है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि बौद्ध दृष्टिकोण में चेतना सदैव निर्भर उत्पन्न (dependent origination) मानी जाती है, जो विभिन्न कारणों-सप्ताहों से संयोजित होती है। वह किसी अणु या पाषाण की अंतर्निहित गुण नहीं कही गई है। इस लिहाज़ से, बौद्ध दर्शन सर्वचेतनावाद से काफी भिन्न राह लेता है: एक पक्ष (सर्वचेतनावाद) कहेगा हर कण अचेतन नहीं है, उसमें सूक्ष्म चेतना है; दूसरा पक्ष (बौद्धमत) कहेगा चेतना की बात तो वहीं उठेगी जहाँ जीवन और मन की अवस्था है, पर चूँकि अन्तत: सब धारणाएँ हैं, चेतना भी व्यक्तिगत आत्मा की तरह कोई परम सत्ता नहीं।
(ग) जैन दर्शन – जीव और अजीव का भेद:
प्राचीन जैन दर्शन ने बहुत स्पष्ट रूप से चेतन और अचेतन को वास्तविकता की दो अलग कोटियों के रूप में परिभाषित किया है। जैन मत के अनुसार संसार मुख्यतः दो द्रव्यों से मिलकर बना है: जीव (आत्मा या प्राणी तत्व) और अजीव (निर्जीव तत्व)। जीव या आत्मा वह है जिसमें चेतना (चेतन गुण) विद्यमान है, जबकि अजीव में चेतना का सर्वथा अभाव है।
जैन ग्रंथ कहते हैं – “जो चेतन है वह जीव है, जो जड़ है वह अजीव है।” जीव आत्माओं की संख्या अनंत मानी गई है; प्रत्येक जीव अपने शरीर के अनुसार फैल सकता है और संकुचित हो सकता है, पर चेतना उसके स्वरूप का अनिवार्य गुण है। अजीव द्रव्य में पुद्गल (पदार्थ), धर्म-अधर्म (गति के माध्यम), आकाश, काल इत्यादि आते हैं – इनमें से पुद्गल (पदार्थ) के गुण रूप-गंध-रस-स्पर्श बताए गए हैं पर “चेतना का अभाव” ही उसका विशेष लक्षण है।
स्पष्ट है कि जैन विचारधारा हर वस्तु को चेतन नहीं कहती, बल्कि चेतन और अचेतन का गहरा द्वैत प्रस्तुत करती है। हाँ, यह ज़रूर है कि जैन मत के अनुसार सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवाणु, वनस्पति यहां तक कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु की अति सूक्ष्म इकाइयों तक में जीवात्माएँ निवास कर सकती हैं। उदाहरणतः मिट्टी के कण में पृथ्वी-काय श्रेणी के असंख्य सूक्ष्म जीव हो सकते हैं, पर स्वयं उस निर्जीव कण की अपनी कोई चेतना नहीं है – चेतना तो उन जीवात्माओं की है जो उसमें निवास कर रही हैं। यह दृष्टिकोण सर्वचेतनावाद से उल्टा है:
जैन दर्शन में चेतना एक अलग तत्त्व (जीव) है जो कुछ विशेष संघटनाओं/शरीरों में ही रहती है; बाक़ी हर चीज़ पूर्णतः जड़ (अजीव) है। इसलिए जैन विचार हमें बताता है कि भारतीय परंपरा में सर्वत्र-चेतना का नहीं, बल्कि चेतन-अचेतन के सहअस्तित्व का सिद्धांत था। जैनियों ने इस द्वैतिक दृष्टिकोण के साथ कर्म सिद्धांत एवं मोक्ष की अवधारणा विकसित की, जिसमें आत्मा को जड़ पुद्गल (कर्म के परमाणु) से अलग कर शुद्ध चेतन अवस्था में लाना लक्ष्य है।
इन तीनों दार्शनिक धाराओं से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय चिंतन में चेतना की प्रकृति पर एकरस मत नहीं था, बल्कि भिन्न-भिन्न दिशाओं में गहन चिंतन हुआ। अद्वैत वेदांत और विज्ञानवादी बौद्ध मत कुछ हद तक चेतना को सार्वभौमिक या बुनियादी कहते हैं, किन्तु एक इसे एक अद्वितीय विश्वात्मा के रूप में देखता है तो दूसरा मानसिक धाराओं के अतिरिक्त कुछ नहीं वास्तविक कहकर भौतिक संसार को ही नकार देता है। जैन मत बिल्कुल विरुद्ध दिशा में जाकर चेतन-निर्जीव को अलग-अलग द्रव्य मानता है, तथा चेतना को सिर्फ जीवित प्राणियों तक सीमित करता है। सर्वचेतनावाद इन सबसे भिन्न इस मायने में है कि यह भौतिक जगत को वास्तविक मानकर चलता है, पर यह जोड़ता है कि प्रत्येक भौतिक इकाई में चेतना का अंश निहित है – न जीवात्माओं का एकत्व अद्वैत की तरह, न भौतिक जगत की माया जैसा विज्ञानवाद, और न जीव-जड़ की दोCategories जैनों जैसी, बल्कि एक मिश्रित दृष्टिकोण। फिर भी, भारतीय दार्शनिक धारणाओं की तुलना से पश्चिमी सर्वचेतनावाद के सिद्धांत को समझने में गहराई आती है, और पता चलता है कि चेतना की पहेली पर इंसानी मस्तिष्क ने अलग-अलग समय और सभ्यताओं में कितने विविध ढंग से सोचा है।
निष्कर्ष – क्या सर्वचेतनावाद से चेतना की समस्या का हल मिल सकता है?
आधुनिक सर्वचेतनावाद का उदय एक साहसिक बौद्धिक कदम है जो चेतना को वास्तविकता की आधारशिला मानकर चलना चाहता है। इसके पक्ष में बोलने वाले दार्शनिकों का मानना है कि इससे अंततः मन-भौतिकी की द्वंद्वात्मक समस्या हल हो सकती है – हम चेतना को किसी अलौकिक आत्मा या चमत्कार की बजाय प्रकृति के ही मूल गुण के रूप में स्वीकार कर लेंगे, तो संपूर्ण विश्वदृष्टि अधिक समग्र (holistic) हो जाएगी। कुछ तर्क देते हैं कि जैसे भौतिक विज्ञान द्रव्य के केवल बहिरंग गुणों (mass, charge आदि) का वर्णन करता है, वैसे संभव है उसके अंतरंग गुण चेतना के रूप में हों – इस रसलियन एकत्ववाद (Russellian monism) की धारणा से पदार्थ और मन का फाँक भर सकता है
लेकिन क्या वाकई इस सिद्धांत से "कठिन समस्या" हल हो जाएगी? इसका उत्तर फिलहाल अनिश्चित है। सर्वचेतनावाद खुद एक फ्रेमवर्क देता है, हल नहीं। वह कहता है कि चेतना को प्रारंभ से ही समीकरण में शामिल करो, पर कैसे यह बुनियादी चेतना विविध जटिल रूप धारण करती है – यह प्रश्न बाकी रहता है। उदाहरण के लिए, संयोजन समस्या का समाधान किए बिना हम नहीं जान पाएंगे कि सूक्ष्म चेतन इकाइयाँ मिलकर हमारी जैसी आत्मसचेतन बुद्धि कैसे बनाती हैं। इसी तरह, जब तक कोई परीक्षण या भविष्यवाणी संभव न हो, वैज्ञानिक समुदाय इस पर पूर्ण विश्वास नहीं करेगा।
हाँ, इतना जरूर है कि सर्वचेतनावाद विचारधारा के स्तर पर एक ताज़गी लाया है। इसने चेतना पर बातचीत का दायरा बढ़ा दिया है और भौतिकवादी खेमे को अपने सिद्धांतों की सीमाओं पर पुनर्विचार करने को प्रेरित किया है। चाल्मर्स जैसे दार्शनिक, जो स्वयं किसी एक मत के प्रति प्रतिबद्ध नहीं, सर्वचेतनावाद को कम से कम एक संभावित समाधान के तौर पर गंभीरता से लेने की बात करते हैं। कुछ अन्य वैज्ञानिक भी खुले दिमाग से स्वीकार रहे हैं कि हमारी समझ में कोई भारी कमी हो सकती है, जिसके लिए इतने क्रांतिकारी दृष्टिकोण की जरूरत पड़े। इस लिहाज़ से, सर्वचेतनावाद ने चेतना के अध्ययन को नए दृष्टिकोण और अंतर-विषयक शोध की ओर मोड़ा है।
अंततः, यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि सर्वचेतनावाद ही चेतना की पहेली की चाबी है। संभव है भविष्य में चेतना को समझाने के लिए भौतिकी खुद परिवर्तित हो जाए या कोई बिल्कुल नई संकल्पना उभरे। सर्वचेतनावाद भी अपनी जगह उस नए समधान का हिस्सा हो सकता है, या हो सकता है बाद में यह एक संक्रमणीय विचार भर रह जाए। फिलहाल, इसका सबसे बड़ा योगदान यह है कि इसने प्रश्न पूछने का एंगल बदल दिया है – अब हम पूछ सकते हैं कि "अगर चेतना सर्वत्र है तो हम उसे विज्ञान में शामिल करने से क्यों हिचकें?", और "क्या चेतना को बुनियाद मानने से उन सवालों का जवाब आसान होता है जिन्हें भौतिकवादी मॉडल टाल जाता है?"
इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए बहस जारी है। हो सकता है आने वाले वर्षों में सर्वचेतनावाद से प्रेरित होकर चेतना पर ऐसे प्रयोग और सिद्धांत सामने आएँ जो सचमुच कठिन समस्या को हल करने में मदद करें। या फिर हो सकता है कि शोधकर्ताओं को एहसास हो कि चेतना की गुत्थी सुलझाने के लिए किसी और रास्ते की ज़रूरत है। कम से कम अब चर्चा के केंद्र में चेतना स्वयं आ गई है, जिसे कभी भौतिक विज्ञान का उपउत्पाद मानकर किनारे किया जा रहा था। इस लिहाज़ से, सर्वचेतनावाद ने दर्शन और विज्ञान – दोनों को – यह स्मरण कराया है कि चेतना जैसी चिर-परिचित फिर भी रहस्यमयी चीज़ को समझने में हमारी यात्रा अभी अधूरी है, और हमें नए दृष्टिकोण अपनाने के लिए तैयार रहना चाहिए।

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