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नैमिषारण्य तीर्थ का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व और धर्मचक्र का वास्तविक अर्थ

  नैमिषारण्य तीर्थ का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व और धर्मचक्र का वास्तविक अर्थ प्रस्तावना नैमिषारण्य (चक्र तीर्थ) उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले में स्थित एक प्राचीन तीर्थ है। ऋषियों की तपोभूमि, ज्ञान एवं साधना का केंद्र, और बहुधार्मिक परंपराओं—हिंदू, बौद्ध, जैन—में किसी न किसी रूप में इसका उल्लेख मिलता है। प्रश्न यह है कि क्या यह केवल आस्था का स्थल है, या इसके पीछे कोई गहन दार्शनिक संकेत भी निहित है? “नैमिषारण्य” को तीन भागों में समझा जा सकता है—‘नै’ (क्षण/क्षणिक), ‘मिष’ (दृष्टि), ‘अरण्य’ (वन)। भावार्थ है—ऐसा वन जहाँ क्षणभर में आत्मदृष्टि या आत्मबोध संभव हो। प्राचीन ग्रंथों में नैमिषारण्य ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और अनेकों पुराणों में इस क्षेत्र का विस्तार से वर्णन है। महाभारत परंपरा में इसे वह स्थान माना गया जहाँ वेदव्यास ने पुराणकथा-वाचन की परंपरा को स्थिर किया। पांडवों के वनवास प्रसंगों में यहाँ ध्यान-तप का उल्लेख मिलता है। रामायण में शत्रुघ्न द्वारा लवणासुर-वध और इसके धार्मिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा का वर्णन है। स्कन्द पुराण इसे “तीर्थराज” कहता है; शिव पुराण में शिव-प...

वर्ण व्यवस्था: प्राचीन स्रोत, प्रमाण और विचार

 

वर्ण व्यवस्था: प्राचीन स्रोत, प्रमाण और विचार

वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज का एक प्राचीन ढांचा है, जिसे समय के साथ कई अलग-अलग रूपों में देखा गया। इसके विकास की शुरुआत वैदिक साहित्य से होती है, जहां इसका उद्देश्य समाज में कार्यों का विभाजन और सामंजस्य स्थापित करना था। लेकिन बाद में यह जन्म आधारित हो गया, जिसने सामाजिक असमानता और भेदभाव को जन्म दिया। इस लेख में हम इस व्यवस्था के ऐतिहासिक स्रोतों, ग्रंथों में उल्लेख, गौतम बुद्ध और डॉ. अंबेडकर के दृष्टिकोण को समझेंगे।




1. वर्ण व्यवस्था का उल्लेख वेदों में

(i) ऋग्वेद का पुरुष सूक्त

वर्ण व्यवस्था का पहला उल्लेख ऋग्वेद के पुरुष सूक्त (ऋग्वेद 10.90) में मिलता है। इसमें समाज के चार वर्णों का प्रतीकात्मक वर्णन है:

"ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्, बाहू राजन्यः कृतः।
उरू तदस्य यद्वैश्यः, पद्भ्यां शूद्रो अजायत।"

(अर्थ): ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय बाहु से, वैश्य उरु से, और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए।
यह श्लोक प्रतीकात्मक रूप में समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन को दर्शाता है। इसमें यह कहीं नहीं कहा गया कि यह जन्म आधारित है।

(ii) उपनिषदों में दृष्टिकोण

उपनिषदों में वर्ण व्यवस्था को आत्मा और कर्म के दृष्टिकोण से देखा गया है।

"अयं आत्मा ब्राह्मणः।" (बृहदारण्यक उपनिषद)
(अर्थ): आत्मा ही ब्राह्मण है।
यहाँ ब्राह्मण का अर्थ उच्च ज्ञान और आत्मज्ञान से है, न कि किसी जन्म से।


2. महाभारत और भगवद गीता में वर्ण व्यवस्था

(i) महाभारत (शांति पर्व)

महाभारत में वर्ण व्यवस्था को कर्म और गुण के आधार पर बताया गया है।

"जनमना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।"
(अर्थ): जन्म से सभी शूद्र होते हैं, लेकिन शिक्षा और संस्कार से द्विज बनते हैं।

(ii) भगवद गीता (अध्याय 4, श्लोक 13)

श्रीकृष्ण ने वर्ण व्यवस्था का उल्लेख गुण और कर्म के आधार पर किया है:

"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"
(अर्थ): चार वर्णों का निर्माण मैंने गुण (स्वभाव) और कर्म (कार्य) के आधार पर किया है।

निष्कर्ष: यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि आरंभिक वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी।


3. गौतम बुद्ध का दृष्टिकोण: वर्ण व्यवस्था का विरोध

गौतम बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था का कड़ा विरोध किया। उनका मानना था कि यह समाज में असमानता और शोषण को बढ़ावा देती है।

(i) बुद्ध का सिद्धांत:

  1. समानता:
    बुद्ध ने कहा कि व्यक्ति का मूल्य उसके कर्म और आचरण से तय होना चाहिए, न कि जन्म से।
    उन्होंने कहा, "कोई भी जन्म से ब्राह्मण या शूद्र नहीं होता, यह केवल कर्मों से तय होता है।"

  2. जातिवाद का विरोध:
    बुद्ध ने कहा कि जाति और वर्ण का आधार जन्म नहीं हो सकता।
    उन्होंने जातिवाद को समाप्त करने के लिए भिक्षु संघ की स्थापना की, जहाँ सभी जातियों के लोग बराबरी के आधार पर रहते थे।

(ii) बुद्ध का समाधान:

बुद्ध ने सामाजिक सुधार के लिए धम्म का प्रचार किया, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित था।


4. डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण: 'गौतम बुद्धा एंड हिज़ धम्मा'

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने वर्ण व्यवस्था को मानवता के लिए घातक बताया और इसे समाप्त करने की वकालत की।

(i) अंबेडकर के विचार:

  1. जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था:
    अंबेडकर ने लिखा कि ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को "ईश्वरीय व्यवस्था" घोषित करके इसे अपरिवर्तनीय बना दिया।
    उन्होंने कहा कि यह समाज में असमानता और शोषण का कारण बनी।

  2. गौतम बुद्ध से प्रेरणा:
    अंबेडकर ने बुद्ध के समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों को अपनाया।
    उन्होंने जातिवाद के खिलाफ आंदोलन चलाया और दलित समुदाय के लिए शिक्षा और अधिकारों की वकालत की।

(ii) अंबेडकर का निष्कर्ष:

"जातिवाद और वर्ण व्यवस्था को सुधारना नहीं, बल्कि समाप्त करना होगा।"


5. वर्ण व्यवस्था का विकास और आज की प्रासंगिकता

वर्ण व्यवस्था पर आधुनिक दृष्टिकोण, ऐतिहासिक बदलाव और वर्तमान स्थिति

वर्ण व्यवस्था, जो कभी समाज में कर्तव्यों के आधार पर कार्य विभाजन का माध्यम थी, समय के साथ जन्म आधारित जाति व्यवस्था में बदल गई। मध्यकाल में इस व्यवस्था का पतन हुआ जब ब्राह्मणवाद और कर्मकांड का वर्चस्व बढ़ा, और सामाजिक गतिशीलता खत्म होने लगी। शूद्रों और महिलाओं को शिक्षा और धार्मिक कार्यों से वंचित कर दिया गया।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, "जब तक हम जाति और वर्ण की संकीर्णता से ऊपर नहीं उठेंगे, भारत आगे नहीं बढ़ सकता।" वहीं महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ शब्द देकर दलितों के सम्मान और मंदिर प्रवेश की लड़ाई लड़ी।

आधुनिक भारत में संविधान ने जाति व्यवस्था को कानूनी रूप से खारिज कर दिया। अनुच्छेद 15 किसी भी प्रकार के जातीय भेदभाव को प्रतिबंधित करता है और अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को अपराध घोषित करता है। यह डॉ. भीमराव अंबेडकर की सामाजिक क्रांति की देन थी।

लेकिन आज भी जाति आधारित भेदभाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है।

  • 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 25% हिस्सा अनुसूचित जातियों (SC) और जनजातियों (ST) से आता है।

  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, SC/ST समुदाय के खिलाफ अपराधों में साल दर साल वृद्धि हो रही है – केवल 2022 में ही लगभग 50,000 से अधिक मामले दर्ज हुए।

  • NCERT और NSSO की रिपोर्टें दिखाती हैं कि इन समुदायों की शिक्षा और रोजगार में भागीदारी अभी भी औसत से काफी नीचे है।

समाज को आगे ले जाने के लिए केवल कानून नहीं, बल्कि चेतना और शिक्षा का जागरण आवश्यक है। स्कूलों, मीडिया और धर्म के माध्यम से यह जागरूकता बढ़ाई जा सकती है कि कर्म ही व्यक्ति की पहचान है, जन्म नहीं।

आज के भारत को चाहिए कि वह गौतम बुद्ध, डॉ. अंबेडकर, विवेकानंद और गांधी के विचारों को आत्मसात करे और एक ऐसे समाज की ओर बढ़े जहाँ समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व केवल किताबों तक सीमित न रहें, बल्कि हर नागरिक के जीवन में परिलक्षित हों।

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