हमारे जीवन में अक्सर ऐसे क्षण आते हैं जब हम खुद से पूछते हैं —
"मैं जो भुगत रहा हूँ, क्या वो मेरे कर्मों का फल है?"
"क्या ये सब पहले से तय था?"
"क्या मैं वाकई अपने जीवन का मालिक हूँ?"
इन सवालों के उत्तर हमें कहीं बाहर नहीं, बल्कि धर्म, दर्शन और आत्मचिंतन के भीतर मिलते हैं।
गौतम बुद्ध और भगवान श्रीकृष्ण, दोनों ने हमें यह सिखाया कि मनुष्य केवल एक पात्र नहीं, बल्कि अपने भविष्य का निर्माता है।
कर्म, स्वतंत्रता और नियति — ये तीनों जीवन के ऐसे स्तंभ हैं, जो तय करते हैं कि हम कौन हैं, और हम क्या बन सकते हैं।
यह लेख इन्हीं तीन विषयों पर उनके दृष्टिकोण से विचार करता है — तथ्य, दर्शन और भाव के संतुलन के साथ।
गौतम बुद्ध:
गौतम बुद्ध ने कर्म को जीवन की केंद्रीय धुरी बताया। उनके अनुसार, मनुष्य अपने जीवन के हर पहलू का निर्माण अपने कर्मों से करता है। उन्होंने कहा:
"मनुष्य अपने कर्मों का स्वामी है, और उसका वर्तमान जीवन, उसके अतीत के कर्मों का परिणाम है।"
"तुम्हारा आज का जीवन तुम्हारे बीते कर्मों का परिणाम है, और तुम्हारा भविष्य तुम्हारे आज के कर्मों पर निर्भर करता है।"
बुद्ध के अनुसार, कर्म केवल क्रिया नहीं, सोच, शब्द और इरादे का भी परिणाम होता है। उन्होंने कहा कि अगर व्यक्ति अपने मन को साध ले, तो वह अपने कर्मों को भी नियंत्रित कर सकता है।
कृष्ण:
कृष्ण ने गीता में निष्काम कर्म योग का सिद्धांत दिया। उनका कहना था:
मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन बिना फल की इच्छा के करना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है, लेकिन कर्मों के परिणाम पर अधिकार नहीं दिया।
उनका प्रसिद्ध कथन है:
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
(तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता मत करो।)
कृष्ण के विचारों में कर्तव्यबोध, धैर्य, और आत्मिक स्वतंत्रता का अद्भुत संतुलन है। वे कहते हैं कि अगर हम कर्म करते हुए फल की चिंता से मुक्त रहें, तो जीवन में शांति और मोक्ष संभव है।
नियतिवादी
1. सब कुछ पहले से तय है
यह धारणा कि सब कुछ पहले से तय है, नियतिवाद (Determinism) को दर्शाती है। इस विचार के अनुसार, हर घटना पूर्व निर्धारित है और मनुष्य के पास कोई विकल्प नहीं है। लेकिन यह सोच स्वतंत्रता और जिम्मेदारी को कमजोर करती है।
"अगर सब तय है, तो प्रयास क्यों करें?" — यही सोच व्यक्ति को निष्क्रिय बना देती है।
बुद्ध, महावीर और कृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि:
मनुष्य अपने कर्मों का स्वामी है। अपने कर्मों से ही वह अपने भविष्य को गढ़ता है।
यह जीवन की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी को स्वीकार करने का संदेश है।
धम्मपद में कहा गया है:
“अत्तही अत्तनो नाथो – आत्मा ही आत्मा की रक्षक है।”
2. यह सब एक अभिनय है
अगर यह मान लिया जाए कि पिता-पुत्र, माता-पति, भाई-बहन आदि के रिश्ते केवल अभिनय हैं, तो यह संबंधों और संवेदनाओं को नकारने जैसा होगा। यह विचार रिश्तों की गहराई और धर्म के अर्थ को खोखला कर देता है।
कृष्ण ने गीता में सिखाया:
-
अपने कर्मों का पालन करो।
-
अपने रिश्तों और कर्तव्यों को धर्म के अनुसार निभाओ।
"स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।"
(अपने धर्म का पालन श्रेष्ठ है, भले उसमें मृत्यु हो।)
गौतम बुद्ध ने भी कहा:
"संवेदनाएं ही मानवता को परिभाषित करती हैं। अगर हम रिश्तों को अभिनय मानें, तो करुणा, सह-अस्तित्व और धर्म का क्या होगा?"
रिश्ते केवल सामाजिक भूमिका नहीं हैं — वे धार्मिक अनुबंध हैं, जो हमारे अंदर की करुणा और दायित्व को उजागर करते हैं।
3. सबकुछ ईश्वर तय करता है
यह विचार कि "ईश्वर सब कुछ तय करता है," इंसान को कर्म से दूर कर सकता है। यदि हर निर्णय पहले से ही तय है, तो प्रयास का क्या मूल्य? यही विचार व्यक्ति को भाग्यवादी, आलसी और नकारात्मक बना सकता है।
कृष्ण ने गीता में कहा:
ईश्वर ने इंसान को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है।
"तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।"
(अर्जुन! उठो, और युद्ध के लिए संकल्प करो।)
बुद्ध के अनुसार:
मोक्ष किसी ईश्वर का उपहार नहीं, बल्कि जागरूकता से किया गया कर्म ही उसका द्वार है।
यह कहना कि "यह सब अभिनय है" या "यह भूमिका ईश्वर ने दी है" सही नहीं है।
यह विचार:
जीवन के वास्तविक अर्थ को नकारता है।
रिश्तों और कर्तव्यों की गहराई को कम करता है।
जीवन का मूल उद्देश्य:
-
अपने रिश्तों को समझना और निभाना।
-
अपने कर्मों से अपने और दूसरों के जीवन को बेहतर बनाना।
-
धर्म, दया और जिम्मेदारी के साथ जीना।
"कर्म ही पूजा है, सेवा है, और साधना है।"
कर्म का महत्व
इंसान के कर्म तय करते हैं कि उसका जीवन कैसा होगा।
“सबकुछ तय है” मानना इंसान को आलसी और गैर-जिम्मेदार बना सकता है।
“जो जैसा करता है, वैसा ही फल पाता है।” – महावाक्य
“अपने जीवन को बदलना है तो अपने कर्म बदलो।” – बुद्ध

Comments
Post a Comment