नैमिषारण्य तीर्थ का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व और धर्मचक्र का वास्तविक अर्थ प्रस्तावना नैमिषारण्य (चक्र तीर्थ) उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले में स्थित एक प्राचीन तीर्थ है। ऋषियों की तपोभूमि, ज्ञान एवं साधना का केंद्र, और बहुधार्मिक परंपराओं—हिंदू, बौद्ध, जैन—में किसी न किसी रूप में इसका उल्लेख मिलता है। प्रश्न यह है कि क्या यह केवल आस्था का स्थल है, या इसके पीछे कोई गहन दार्शनिक संकेत भी निहित है? “नैमिषारण्य” को तीन भागों में समझा जा सकता है—‘नै’ (क्षण/क्षणिक), ‘मिष’ (दृष्टि), ‘अरण्य’ (वन)। भावार्थ है—ऐसा वन जहाँ क्षणभर में आत्मदृष्टि या आत्मबोध संभव हो। प्राचीन ग्रंथों में नैमिषारण्य ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और अनेकों पुराणों में इस क्षेत्र का विस्तार से वर्णन है। महाभारत परंपरा में इसे वह स्थान माना गया जहाँ वेदव्यास ने पुराणकथा-वाचन की परंपरा को स्थिर किया। पांडवों के वनवास प्रसंगों में यहाँ ध्यान-तप का उल्लेख मिलता है। रामायण में शत्रुघ्न द्वारा लवणासुर-वध और इसके धार्मिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा का वर्णन है। स्कन्द पुराण इसे “तीर्थराज” कहता है; शिव पुराण में शिव-प...
सारनाथ में गौतम बुद्ध का प्रथम प्रवचन: 'मध्यम मार्ग' की शिक्षा
गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला उपदेश सारनाथ में पाँच भिक्षुओं को दिया था। इस उपदेश में उन्होंने 'मध्यम मार्ग' की शिक्षा दी, जो न तो अत्यधिक भोग पर आधारित है और न ही कठोर तपस्या पर। यह जीवन में संतुलन का मार्ग है, जो आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
1. तथागत की पहचान और करुणा:
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि उन्हें 'तथागत' के नाम से न पुकारें और न ही 'मित्र' कहें, क्योंकि वे अब आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके हैं। बुद्ध का करुणापूर्ण हृदय समस्त प्राणियों के प्रति समान भाव रखता है, इसलिए वे 'पिता' के समान हैं। उन्हें सम्मान देना और उनकी शिक्षा का अनुसरण करना ही सही है।
2. मध्यम मार्ग की शिक्षा:
बुद्ध ने बताया कि आत्मज्ञान की प्राप्ति न तो कठोर तपस्या से होती है और न ही सांसारिक सुखों में लीन रहने से। इसके विपरीत, उन्होंने 'मध्यम मार्ग' का अनुसरण करने का आग्रह किया, जो संतुलन और संयम का मार्ग है। यह मार्ग दोनों अतियों से दूर है और जीवन के हर पहलू में सही दृष्टिकोण प्रदान करता है।
3. मांसाहार और पवित्रता पर बुद्ध की दृष्टि:
बुद्ध ने स्पष्ट किया कि मांस-भक्षण से अपवित्रता उत्पन्न नहीं होती। बल्कि, अपवित्रता का स्रोत क्रोध, हठ, ईर्ष्या, छल, और अशुभ विचार होते हैं। पवित्रता का मार्ग आत्मसंयम, शुद्ध विचार और नैतिक आचरण में निहित है।
4. कठोर तपस्या की निंदा:
कठोर तपस्या और आत्म-पीड़न शरीर और मन को कमजोर बनाते हैं। बुद्ध ने कहा कि यदि व्यक्ति अपने अंदर की इच्छाओं और कामनाओं को समाप्त नहीं कर सकता, तो आत्म-पीड़न व्यर्थ है। उन्होंने जोर दिया कि सच्ची शांति और संतोष आंतरिक परिवर्तन और आत्मसंयम से ही मिल सकते हैं।
5. अहंकार और मोह से मुक्ति:
बुद्ध ने समझाया कि जब तक व्यक्ति अहंकार और मोह से मुक्त नहीं होता, तब तक वह आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। सच्चा पवित्रता तभी संभव है, जब व्यक्ति अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि को सही ढंग से समझे और उसका संतुलित तरीके से पालन करे।
6. कमल का उदाहरण:
बुद्ध ने कमल के फूल का उदाहरण दिया, जो पानी में होते हुए भी उससे प्रभावित नहीं होता। उसी तरह, एक आत्मज्ञानी व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उससे अप्रभावित रहता है। वह अपनी इच्छाओं और इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है।
7. जीवन की आवश्यकताएँ और संतुलन:
बुद्ध ने समझाया कि जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना पाप नहीं है। शरीर को स्वस्थ रखना भी एक कर्तव्य है, ताकि हम विवेक और शुद्धता के साथ अपने मन और आत्मा का विकास कर सकें। उन्होंने कहा कि स्वस्थ शरीर ही हमें आत्मज्ञान की दिशा में अग्रसर कर सकता है।
8. भिक्षुओं के लिए करुणा और मार्गदर्शन:
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं के प्रति गहरी करुणा और स्नेह व्यक्त करते हुए उन्हें इस मध्यम मार्ग का अनुसरण करने की शिक्षा दी। उन्होंने शिष्यों को समझाया कि उनके त्रुटिपूर्ण प्रयासों के बावजूद, आत्म-साक्षात्कार का मार्ग खुला है। शिष्य अपने जीवन में संतुलन और संयम के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
बुद्ध का यह प्रथम प्रवचन हमें सिखाता है कि जीवन में न तो अत्यधिक कठोरता सही है और न ही असीमित भोग। आत्मज्ञान का मार्ग मध्य में है—जहाँ संतुलन, संयम, और सही आचरण है। बुद्ध की यह शिक्षा आज भी प्रासंगिक है और हमें एक शांतिपूर्ण और संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा देती है।

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