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नैमिषारण्य तीर्थ का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व और धर्मचक्र का वास्तविक अर्थ

  नैमिषारण्य तीर्थ का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व और धर्मचक्र का वास्तविक अर्थ प्रस्तावना नैमिषारण्य (चक्र तीर्थ) उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले में स्थित एक प्राचीन तीर्थ है। ऋषियों की तपोभूमि, ज्ञान एवं साधना का केंद्र, और बहुधार्मिक परंपराओं—हिंदू, बौद्ध, जैन—में किसी न किसी रूप में इसका उल्लेख मिलता है। प्रश्न यह है कि क्या यह केवल आस्था का स्थल है, या इसके पीछे कोई गहन दार्शनिक संकेत भी निहित है? “नैमिषारण्य” को तीन भागों में समझा जा सकता है—‘नै’ (क्षण/क्षणिक), ‘मिष’ (दृष्टि), ‘अरण्य’ (वन)। भावार्थ है—ऐसा वन जहाँ क्षणभर में आत्मदृष्टि या आत्मबोध संभव हो। प्राचीन ग्रंथों में नैमिषारण्य ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और अनेकों पुराणों में इस क्षेत्र का विस्तार से वर्णन है। महाभारत परंपरा में इसे वह स्थान माना गया जहाँ वेदव्यास ने पुराणकथा-वाचन की परंपरा को स्थिर किया। पांडवों के वनवास प्रसंगों में यहाँ ध्यान-तप का उल्लेख मिलता है। रामायण में शत्रुघ्न द्वारा लवणासुर-वध और इसके धार्मिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा का वर्णन है। स्कन्द पुराण इसे “तीर्थराज” कहता है; शिव पुराण में शिव-प...

परंपरा नहीं, विवेक को मानो | अपना दीपक स्वयं बनो

 बुद्ध की वाणी: परंपरा नहीं, विवेक को मानो | अपना दीपक स्वयं बनो

"किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह परंपरा है।
न ही इसलिए कि वह ग्रंथों में लिखी है या किसी आदरणीय व्यक्ति ने कही है।
उसे तभी मानो जब वह तुम्हारी बुद्धि, तर्क और विवेक की कसौटी पर खरी उतरे।
अपने दीपक स्वयं बनो।"
भगवान गौतम बुद्ध


 


हमारी सभ्यता हजारों वर्षों से विचारों, धारणाओं, परंपराओं और विश्वासों का महासागर रही है।
हर युग में कुछ मान्यताएँ बनीं — कुछ समय के साथ बदल गईं, कुछ आज भी जस की तस मानी जा रही हैं।

पर बुद्ध की दृष्टि इस भीड़ में अंधविश्वास और विवेकहीनता को देखती है —
और वे हमें जगाने आते हैं।


1. क्या परंपरा ही सत्य है?

समाज में अक्सर यह देखा जाता है:

  • कोई बात इसलिए मानी जाती है क्योंकि "बुजुर्ग कहते आए हैं"

  • कोई परंपरा इसलिए निभाई जाती है क्योंकि "हमारे पिताजी ने भी यही किया था"

  • किसी बात का विरोध नहीं होता क्योंकि "शास्त्रों में लिखा है"

  • और कोई अंधविश्वास चलता रहता है क्योंकि "गांव के पंडित जी ने बताया है"

पर क्या यह सोचने योग्य नहीं है —
कि अगर कोई बात हजार सालों से चली आ रही है,
तो क्या वह सत्य है?
या केवल एक अविचारित परंपरा?

उदाहरण:
"राहु-काल में घर से बाहर मत जाओ",
"काली बिल्ली रास्ता काटे तो रुक जाओ",
"स्त्रियाँ अमुक ग्रंथ नहीं पढ़ सकतीं",
"सावन में विवाह नहीं होते"...

इन सभी बातों में कोई वैज्ञानिक, तर्कसंगत या नैतिक आधार नहीं है — फिर भी हम उन्हें तर्कहीन भय के कारण निभाते हैं।


2. बुद्ध की दृष्टि: जानो, परखो, फिर मानो

गौतम बुद्ध ने कभी मान्यता या परंपरा को अंतिम सत्य नहीं कहा।
उन्होंने स्पष्ट कहा:

"कोई भी बात तब तक मत मानो जब तक वह तुम्हारे बुद्धि, विवेक, तर्क, अनुभव और प्रज्ञा की कसौटी पर सही न ठहरे।"

वे कहते हैं:

  • किसी भी गुरु, पंडित, आचार्य की बात को आंख मूंदकर मत मानो

  • किसी भी धर्मग्रंथ में लिखी बात को अंतिम नहीं मानो

  • केवल वह बात मानो —

    • जो मनुष्य को हिंसा से दूर करे,

    • करुणा और सत्य के मार्ग पर ले जाए,

    • तुम्हारे आत्मा को स्वतंत्रता दे,

    • और समाज, प्रकृति, एवं पृथ्वी के लिए कल्याणकारी हो।


3. परंपरा vs विवेक: कब टकराते हैं?

वास्तविक उदाहरण:
आज भी कुछ जगहों पर बाल-विवाह, जातिगत छुआछूत, स्त्री निषेध, पशु बलि आदि परंपरा के नाम पर चलते हैं।
जबकि वे न तो करुणा के अनुकूल हैं, न तर्क के।

एक और उदाहरण:
एक मां अपने बेटे को रोज़ मंदिर ले जाती है।
एक दिन बच्चा पूछता है — “क्या भगवान यहीं रहते हैं?”
मां चुप हो जाती है, क्योंकि उसने कभी सोचा ही नहीं था।
वह बस वर्षों से चली परंपरा निभा रही थी।

बुद्ध कहते हैं — वही रुको और सोचो।
वही पहली जागृति है।


4. "अपने दीपक स्वयं बनो" का अर्थ क्या है?

"अप्प दीपो भव" — अपने दीपक स्वयं बनो।

इसका मतलब है:

  • अपने तर्क को जागृत करो

  • अपने अनुभव से सीखो

  • अपने हृदय की आवाज़ सुनो

  • सत्य की खोज करो, न कि भीड़ का अनुकरण

यह आत्म-प्रकाश की यात्रा है।

बुद्ध कोई निर्देशक नहीं बने — वे मार्गदर्शक बने।
उन्होंने कहा:

“मैं मार्ग दिखा सकता हूँ, चलना तुम्हें ही होगा।”


5. कब मानो, और कब न मानो? (निर्णय की कसौटी)

कोई भी बात मानने से पहले स्वयं से ये प्रश्न पूछो:

✅ क्या यह बात मेरी बुद्धि और अनुभव से मेल खाती है?
✅ क्या इससे मेरे जीवन और समाज का भला हो रहा है?
✅ क्या यह अहिंसा, करुणा और शांति को बढ़ावा देती है?
✅ क्या यह मेरी आत्मा को स्वतंत्र बनाती है या गुलाम?
✅ क्या इससे मैं औरों के प्रति दयालु हो रहा हूँ?

अगर उत्तर “हाँ” है — तो वह बात चाहे किसी ग्रंथ, गुरु, या परंपरा से आई हो — मान लेने योग्य है।

अगर उत्तर “नहीं” है — तो चाहे वह 5000 साल पुरानी परंपरा हो — उसका त्याग बुद्धिमत्ता है।


समापन विचार: बुद्ध की रोशनी आज भी जला रही है

आज जब दुनिया सूचना से भरी है, लेकिन ज्ञान से खाली —
जब लोग सोशल मीडिया पर अंधभक्ति और नफरत में बह रहे हैं —
तब बुद्ध की यह एक वाणी ही हज़ारों ग्रंथों से ज़्यादा मूल्यवान है:

“अपने दीपक स्वयं बनो।”

मत बनो किसी का अंधा अनुयायी।
मत मानो हर बात को जैसे-जैसे कह दी गई।
सोचो, समझो, अनुभव करो — और फिर चुनो।

क्योंकि जब हर मनुष्य अपना दीपक स्वयं बनता है —
तभी यह संसार प्रकाशमय बनता है।


लेखक: अलोक मोहन
(यह लेख ध्यान-साधना और आत्मचिंतन से प्राप्त अंतर्बोध पर आधारित है।)

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